स्याह रातों के अंधेरों में
भटकती आत्मा की तरह
ज़िंदगी मेरी
जाने कहाँ
किस दिशा में
लिए जा रही है,
ना कोई मंजिल
ना साथी
और ना हमसफ़र कोई..
साथ है तो बस
तन्हाई मेरी
गिरता हूँ
फिसलता हूँ मैं
खाता हूँ ठोकरें
फिर भी
हाथ थामे
हौसलों का
बस यूँ ही चलता हूँ मैं.
दिखी थी कभी
एक उम्मीद की किरण
जिसने किया प्रेरित
मुझे आगे बढ़ने का
और मैं
उसी उम्मीद की
किरण के सहारे
चला जा रहा हूँ
अपनी मंजिल की तलाश में
–> गोपाल के.
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