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Sunday, April 22, 2012

आंकलन (मजदूर दिवस पर)































तुम
वातानुकूलित कमरे में बैठकर
करते हो मेरा
आंकलन
और मापते हो
मेरी गरीबी
तुम्हे
कोई परवाह नहीं
कि हम
क्या पहनते हैं?
क्या खाते हैं?
हाड तोड़ मेहनत के बाद
हम बदले में
क्या पाते हैं??
ये हमारी खुद्दारी नहीं
बल्कि मजबूरी है
कि हम कतारों में नहीं दिखते
न राशन के
न गैस के
और न बेरोजगारी भत्ते के..
ना हमारा बी.पी.एल. कार्ड है
ना गैस कनेक्सन के पैसे
और ना ही हम
सरकारी बाबुओं की कोई
खिदमत ही कर सकते हैं,
हम तो बस जी रहे हैं
धरती पे बोझ की तरह
हाँ, हमारे घर
कोई बिल नहीं आता
ना बिजली का
ना फोन का
और ना ही हम
संसद के
किसी बिल का
हिस्सा होते हैं
हम तो वो हैं साहब
जो मर गया
तो विपक्षी दल
बवाल करते हैं
हमारे नाम पे
अपनी रोटियाँ सेंकते हैं
और सरकार
हमे मरने नहीं देती
वरना उनका
गरीबी का
चुनावी मुद्दा ही
ख़तम जो हो जायेगा..
और हमारे नाम पर
मलाई खा रहे
सरकारी सरकारी अफसरों के
बंगलों का
साजोसामान कैसे आएगा?
हमारे नाम पर
कई लोग
कमा खा रहे हैं
हमारा क्या है?
हम तो मुफलिसी में भी
हंसकर जिए जा रहे हैं..
शायद हमारी यही मुस्कान
इन बड़े लोगों को अखरती है
वो नोटों की गड्डियों पर भी
सो नहीं पाते
और हमे
फुटपाथ पे भी
चैन की नींद
कैसे पड़ती है?
ये तो आपलोग ही जानो साहब
आप कमाते हो
कुछ ज्यादा ही कमाते हो
तभी तो इधर उधर कर के
जैसे भी करके
इनकम टैक्स बचाते हो,
आपका सारा चैन
काली कमाई को बचाने में
उसे सुरक्षित जगह
खपाने में
लगा रहता है
गरीबी पर टैक्स नहीं लगता ना
तभी तो वो चैन से रहता है..
गरीब जियेगा या मरेगा
पर करेगा नरेगा
और देश का विकास करेगा
आप साहब लोग
देश का मेहनताना
यानि टैक्स चुराते हो
उल्टा मंहगाई बढ़ने का इल्जाम
हमारा ज्यादा खाना बताते हो?
हाँ, खाना तो असल में
हम गरीब ही खाते हैं
आप तो डॉक्टर की दवाईयों से ही
अपना पेट भर लेते हो
हम
रिक्शे वाले
ठेले वाले
या दिहाड़ी मजदूर हैं
हम हर हाल में जीते हैं
हम तो बस ठोकर खाते हैं
और गम के आंसू पीते हैं..
तुम चाहे टैक्स भरो ना भरो
पर हम गरीबों का आंकलन
हमे देख कर करो..!!

--गोपाल के.

Monday, April 16, 2012

क्षणिका





1-
हिन्दू, मुस्लिम,
सिक्ख, इसाई,
सबको डस गयी
ये मंहगाई.

2-
क्षण में फूंक दे
खुद को भी
आक्रोश

3-
तुम्हारी व्यथा
मन की कथा
तुम्हारी जुबानी
मेरी कहानी

4-
धर्मार्थ हो,
परमार्थ हो,
इसमें न कोई
स्वार्थ हो.

5-
हार गया
पहलवान
समय बड़ा
बलवान

--गोपाल के.

Friday, August 29, 2008

शून्य होते हम


शून्य
यही दिया था ना भारत ने विश्व को?
फिर आज खुद शून्य क्यूँ हो रहा है खुद?

एक --

संवेदनाओं में शून्य..
अब नहीं दिखती किसी की तकलीफ?
या सड़क पर दुर्घटना का शिकार हुए
व्यक्ति को देखने में
तुम्हे रोमांच आने लगा है?
ये देखना चाहते हो-
कि मेरे सामने कोई कैसे मरता है?
तड़प-तड़प कर..
और कुछ महानुभाव तो
बहुत ही परम हो गये हैं
चैन, मोबाइल, घडी और पैसे ले कर भी
नहीं सुनते उसकी विनती..
ना समझ सकते हैं उसके दर्द को..
लूट कर चल देते हैं
अपने घरवालो को खुशिया देने..
क्या इतनी भीड़ में
एक आदमी भी खून से लथपथ पड़े
उस व्यक्ति को अस्पताल नहीं पंहुचा सकता?
क्या मै भी नहीं?
क्या तुम भी नहीं?

दो--

शून्य हो चुके हैं रिश्ते
क्या माँ-बाप?
क्या भाई बहन?
सब यार हो गये..
और यार रिश्तेदार हो गये..
मामा-मामी, चाचा-चाची..
सब अंकल आंटी बन गये
और उनके बच्चे
कजिन बन गये
सारे रिश्ते
एक ही नाम में सिमटने लगे..
अपनापन खोजते तो हैं हम
पर किसी को अपना कर
अपना बना कर देखा है कभी?
प्यार सब पाना चाहते हैं
प्यार लुटा कर देखा है कभी?
ये वो दौलत है
जो लुटा कर और भी
दौलत मंद हो जाता है..
ज्ञान कि तरह..
पर ज्ञान भी तो शुन्य हो गया है..
अमेरिका में बैठी दोस्त
क्या कर रही है वो पता है
पर पड़ोस में कौन रहता है
ये नहीं पता॥

तीन --

खुशियों में शून्य
झूठी हँसी हँसने लगे
और जो हँसता दिखा
उसको ऐसी बात बोल दी
कि उसका भी चेहरा अपने जैसा
मनहूस बना दिया..
खुद तो हँस सकते नहीं
दूसरे की ख़ुशी भी नहीं देख सकते।

चार --

संतुष्टि में शुन्य
अब संतोषी माँ की कृपा
शायद लोगो में कम हो गयी है
या वो हम सब से रूठ गयी हैं..
किसी को संतोष ही नहीं
और पहले?
३०० रूपये में पूरा परिवार
ख़ुशी से चलता था
आज?
३०,००० भी कम पड़ रहा है..
पहले इच्छाएँ कम थी,
अब संतुष्टि कम हो गयी..
संस्कृति से शून्य
अब किसी की फोटो से
अगर उसका चेहरा हटा दिया जाये
तो कोई बता ही नहीं सकता
कि ये फोटो किस देश के
व्यक्ति की है..
सब इंटरनेशनल हो चले हैं,
पर खुद की पहचान खो कर..
हम सभी शून्य से ही हैं
और शून्य होने की तरफ
हम कदम बढाये जा रहे हैं.

--गोपाल के.

Friday, August 15, 2008

मुझमे आग भर दो..

हे ईश्वर

मुझमे तू आग भर दे

या तो मै खुद जल जाऊँ

या जला कर ख़ाक कर दूँ

अपनी इस चुप्पी को

जो इतना सब कुछ सुनकर भी

अब तक खामोश है,

या अपनी इन नज़रों को,

जो सब कुछ देख कर भी

कहीं और मदहोश है..

या अपनी इस कलम को,


जिसने अपनी धार खो दी है..

या अपनी इस स्याही को,

जो अब मंहगाई पर रो दी है?

करने वाले के लिए कुछ भी नहीं मुश्किल,

और हम जैसों के लिए जाने कितनी बाधाएं

कितनी ही दिक्कतें और

कितनी मजबूरियां

सब हमारे लिए ही रास्ता रोके खड़ी हैं,

सोचता हूँ

क्या गाँधी, नेहरु, सुभाष,

खुदीराम या भगत सिंह

इन सब के पास कोई काम नहीं था

या इन्होने अपनी हर मज़बूरी,

हर बाधा, हर इच्छा का

हवन कर दिया था?

क्या इन्हें डर नहीं था मरने का?

या इनकी माताएं बेफिक्र थी

इनके फांसी पर झूल जाने पर भी?

कुछ नहीं,

बस वक़्त का फेर है,

तब इन माँओं के लिए पूरा देश बेटा था

आज के बेटे के लिए अपनी माँ ही गैर है..

जब उसके लिए माँ ही कुछ नहीं तो कैसी मिट्टी

कैसी मात्रभूमि?

और क्या माटी का कर्ज?

अब देश से ज्यादा

ईमान से ज्यादा

माँ से ज्यादा

पैसा जो हो गया है..

आखिर मंहगाई जो इतनी बढ़ गयी है..!

घर पहले,

देश के बारे में सोचने को तो

सौ करोड़ लोग हैं ही॥


यही सोच रहे हो क्या?

--गोपाल के.

Saturday, June 28, 2008

SAMZAA DO



Ye samza do Sarkaar ko,
Jeet me badle haar ko..

Mehgaayi ko rota nahi,
Rota hu bhrastaachaar ko..

Choose khoon Desh ka neta,
Deta hai Sharan ‘Faraar’ ko..

Kamjoron ko Hadkaate hain,
Karte hain Naman DumDaar ko..

Paisa hi Paise ko kheeche,
Roji na mile ‘Bekaar’ ko..

Khud to samaz lo pahle tum,
Samzaana fir Sansaar ko!
--GOPAL

YE MAI HU-- GOPAL

LOVE MATCH


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