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Friday, August 29, 2008

शून्य होते हम


शून्य
यही दिया था ना भारत ने विश्व को?
फिर आज खुद शून्य क्यूँ हो रहा है खुद?

एक --

संवेदनाओं में शून्य..
अब नहीं दिखती किसी की तकलीफ?
या सड़क पर दुर्घटना का शिकार हुए
व्यक्ति को देखने में
तुम्हे रोमांच आने लगा है?
ये देखना चाहते हो-
कि मेरे सामने कोई कैसे मरता है?
तड़प-तड़प कर..
और कुछ महानुभाव तो
बहुत ही परम हो गये हैं
चैन, मोबाइल, घडी और पैसे ले कर भी
नहीं सुनते उसकी विनती..
ना समझ सकते हैं उसके दर्द को..
लूट कर चल देते हैं
अपने घरवालो को खुशिया देने..
क्या इतनी भीड़ में
एक आदमी भी खून से लथपथ पड़े
उस व्यक्ति को अस्पताल नहीं पंहुचा सकता?
क्या मै भी नहीं?
क्या तुम भी नहीं?

दो--

शून्य हो चुके हैं रिश्ते
क्या माँ-बाप?
क्या भाई बहन?
सब यार हो गये..
और यार रिश्तेदार हो गये..
मामा-मामी, चाचा-चाची..
सब अंकल आंटी बन गये
और उनके बच्चे
कजिन बन गये
सारे रिश्ते
एक ही नाम में सिमटने लगे..
अपनापन खोजते तो हैं हम
पर किसी को अपना कर
अपना बना कर देखा है कभी?
प्यार सब पाना चाहते हैं
प्यार लुटा कर देखा है कभी?
ये वो दौलत है
जो लुटा कर और भी
दौलत मंद हो जाता है..
ज्ञान कि तरह..
पर ज्ञान भी तो शुन्य हो गया है..
अमेरिका में बैठी दोस्त
क्या कर रही है वो पता है
पर पड़ोस में कौन रहता है
ये नहीं पता॥

तीन --

खुशियों में शून्य
झूठी हँसी हँसने लगे
और जो हँसता दिखा
उसको ऐसी बात बोल दी
कि उसका भी चेहरा अपने जैसा
मनहूस बना दिया..
खुद तो हँस सकते नहीं
दूसरे की ख़ुशी भी नहीं देख सकते।

चार --

संतुष्टि में शुन्य
अब संतोषी माँ की कृपा
शायद लोगो में कम हो गयी है
या वो हम सब से रूठ गयी हैं..
किसी को संतोष ही नहीं
और पहले?
३०० रूपये में पूरा परिवार
ख़ुशी से चलता था
आज?
३०,००० भी कम पड़ रहा है..
पहले इच्छाएँ कम थी,
अब संतुष्टि कम हो गयी..
संस्कृति से शून्य
अब किसी की फोटो से
अगर उसका चेहरा हटा दिया जाये
तो कोई बता ही नहीं सकता
कि ये फोटो किस देश के
व्यक्ति की है..
सब इंटरनेशनल हो चले हैं,
पर खुद की पहचान खो कर..
हम सभी शून्य से ही हैं
और शून्य होने की तरफ
हम कदम बढाये जा रहे हैं.

--गोपाल के.

किसका इंतजार ?


कितना खाली लगता है
ये दिल कभी-कभी,
बिलकुल खोखला सा..
किसी सूखे दीमक लगे पेड़ के
खोखले तने की तरह..
बिलकुल खाली सा
इतना कमजोर
कि तेज हवा के झोंके से भी
टूट कर गिर पड़े,
और इतना गहरा सन्नाटा
जैसे गहरे कुंए में
पानी की परछाई में
सिर्फ अपनी ही तस्वीर
जैसे चाँद से झांकता कोई
दिल के वीरानेपन को
देखने की कोशिश कर रहा हो
पर दूर से
बहुत दूर से..
पास आने से डरता होगा
वो भी
खुशियों की तरह
या शायद
बेपरवाह हो.
कुछ भी हो..
मुझे क्या?
मै तो तब भी तन्हा था
तन्हा दिल लिए
अब भी तन्हा ही रहूँगा
कौन आएगा दूर करने इसको?
अब तो रात हो चली है,
अपना साया तक साथ छोड़ चला,
तो अब क्या उम्मीद
और किसका इंतज़ार?

--गोपाल के.

Friday, August 15, 2008

मुझमे आग भर दो..

हे ईश्वर

मुझमे तू आग भर दे

या तो मै खुद जल जाऊँ

या जला कर ख़ाक कर दूँ

अपनी इस चुप्पी को

जो इतना सब कुछ सुनकर भी

अब तक खामोश है,

या अपनी इन नज़रों को,

जो सब कुछ देख कर भी

कहीं और मदहोश है..

या अपनी इस कलम को,


जिसने अपनी धार खो दी है..

या अपनी इस स्याही को,

जो अब मंहगाई पर रो दी है?

करने वाले के लिए कुछ भी नहीं मुश्किल,

और हम जैसों के लिए जाने कितनी बाधाएं

कितनी ही दिक्कतें और

कितनी मजबूरियां

सब हमारे लिए ही रास्ता रोके खड़ी हैं,

सोचता हूँ

क्या गाँधी, नेहरु, सुभाष,

खुदीराम या भगत सिंह

इन सब के पास कोई काम नहीं था

या इन्होने अपनी हर मज़बूरी,

हर बाधा, हर इच्छा का

हवन कर दिया था?

क्या इन्हें डर नहीं था मरने का?

या इनकी माताएं बेफिक्र थी

इनके फांसी पर झूल जाने पर भी?

कुछ नहीं,

बस वक़्त का फेर है,

तब इन माँओं के लिए पूरा देश बेटा था

आज के बेटे के लिए अपनी माँ ही गैर है..

जब उसके लिए माँ ही कुछ नहीं तो कैसी मिट्टी

कैसी मात्रभूमि?

और क्या माटी का कर्ज?

अब देश से ज्यादा

ईमान से ज्यादा

माँ से ज्यादा

पैसा जो हो गया है..

आखिर मंहगाई जो इतनी बढ़ गयी है..!

घर पहले,

देश के बारे में सोचने को तो

सौ करोड़ लोग हैं ही॥


यही सोच रहे हो क्या?

--गोपाल के.

YE MAI HU-- GOPAL

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