
मुझमे तू आग भर दे
या तो मै खुद जल जाऊँ
या जला कर ख़ाक कर दूँ
अपनी इस चुप्पी को
जो इतना सब कुछ सुनकर भी
अब तक खामोश है,
या अपनी इन नज़रों को,
जो सब कुछ देख कर भी
कहीं और मदहोश है..
या अपनी इस कलम को,
जिसने अपनी धार खो दी है..
या अपनी इस स्याही को,
जो अब मंहगाई पर रो दी है?
करने वाले के लिए कुछ भी नहीं मुश्किल,
और हम जैसों के लिए जाने कितनी बाधाएं
कितनी ही दिक्कतें और
कितनी मजबूरियां
सब हमारे लिए ही रास्ता रोके खड़ी हैं,
सोचता हूँ
क्या गाँधी, नेहरु, सुभाष,
खुदीराम या भगत सिंह
इन सब के पास कोई काम नहीं था
या इन्होने अपनी हर मज़बूरी,
हर बाधा, हर इच्छा का
हवन कर दिया था?
क्या इन्हें डर नहीं था मरने का?
या इनकी माताएं बेफिक्र थी
इनके फांसी पर झूल जाने पर भी?
कुछ नहीं,
बस वक़्त का फेर है,
तब इन माँओं के लिए पूरा देश बेटा था
आज के बेटे के लिए अपनी माँ ही गैर है..
जब उसके लिए माँ ही कुछ नहीं तो कैसी मिट्टी
कैसी मात्रभूमि?
और क्या माटी का कर्ज?
अब देश से ज्यादा
ईमान से ज्यादा
माँ से ज्यादा
पैसा जो हो गया है..
आखिर मंहगाई जो इतनी बढ़ गयी है..!
घर पहले,
देश के बारे में सोचने को तो
सौ करोड़ लोग हैं ही॥
यही सोच रहे हो क्या?
--गोपाल के.