लहरें
सहसा झकझोर जाती हैं
अंतर्मन को
यादों की डोर
तोड़ कर
अपनी शक्ति का
आभास दिलाती हैं
अपने शोर से
डराती हैं
अपनी विशालता से
इंसान के
सर्वश्रेष्ट होने के
अहं पर चोट करती हैं
और कहती हैं
देख मुझे
सुन मुझे
मेरा एहसास कर
और मेरे हर प्रयास को
खुद में महसूस कर
मै बार-बार चट्टानों पर
आकर सर नहीं पटकती
मै पत्थर का गुरुर
करती हूँ चकनाचूर
होता सख्त और मजबूत
अपनी जगह
जम कर बैठा हुआ
पर मेरे आगे
ये भी पानी भरता है
देख इनको गौर से
इनमे मेरे बनाए निशानों को
और इनमे से कई चट्टानों को तो
मैंने ही काटा है
दो -चार हिस्सों में बांटा है..
इसको भी बहुत घमंड था
अपनी मजबूती पर
लेकिन मैंने इसे तोडा
साथ ही इसके घमंड को भी
और किस से?
सिर्फ जल और वायु से
इनको खुद में समाहित कर के
मैंने जाने कितनो के घमंड तोड़े हैं
कितनों को दिशा दी है
कितनो को मंजिल तक पहुचाया है
और जाने कितनो को सीख दी है
आ देख मुझे तू भी
और बन मेरे जैसा
छोड़ कर अहंकार और तृष्णा
तू भी बढ़ा चल
तू भी चला चल
अकेला ही सही..!
–> गोपाल के.
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