दर्द तब तक ही दर्द देता है..
जब तक हम उसे
पराया समझते हैं..
जब उसे सहते सहते..
उसके आदी हो जाते हैं
तो वही दर्द हमे
प्यारा भी लगने लगता है..
क्यूंकि..
वो दर्द बेवफा तो नहीं होता..
खुशियों की तरह..
जो जरा जरा सी बात पर
रूठ जाती है..
चली जाती है
तन्हा छोड़ कर..
बिलकुल तन्हा..
जहां अपनी परछाई भी
साथ न दे..
ऐसे अन्धकार में
धकेल कर..
कब तक?
आखिर कब तक भागूं ?
इन खुशियों के पीछे..??
जो हमे देख कर भी रहती है..
अपनी आँखें मीचे..
इन खुशियों से अच्छी तो
ये दर्द हैं..
जो बिना बुलाये आ जाती हैं..
वो भी
अपने पुरे परिवार के साथ..
निभाने को साथ
दिन हो या रात..
जो कभी बेवफाई तो नहीं करती
दिल में आबाद रहती है..
शायद जिंदगी भी यही कहती है..
कि सुख दुःख तो
जीवन का अंग है..
सबके अपने-अपने
जीने का ढंग है..
कहीं अँधेरा कहीं उजाला
यही तो
जिंदगी का रंग है॥!!
--गोपाल के.
2 comments:
Hmm...bahot khoob....kafi dard bhara hai...par labzo ka sahi istemaal kiya aapne...
hasti aankho ka gam hum samajte hai..
palko par sapne lie rehte hai..
jaante hai har khwab tut jayega ek din...
fir bhi begano ko apna samajte hai..
SHUKRIYA..!!
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