सागर से मिलने को बहती
एक नदी से मैंने पुछा॥
तू ये बता--
अपना अस्तित्व खोकर
तू सागर में विलीन हो जाती है,
आखिर ऐसा करके,
तू क्या पाती है?
मचल कर
थोडा इठलाते हुए
नदी ने कहा मुस्कुराकर मुझे॥
प्यार में अपना अस्तित्व
बचता ही कहाँ है?
हम तो रंग जाते हैं
उसी रंग में,
जिस रंग में वो
रंगा रहता है॥
खोकर अपना रंग,
अपना कर उसका रंग-ढंग॥
हम भी उसी का
एक रूप हो जाते हैं॥
तभी तो उसे पा पाते हैं॥
मै भी सागर में विलीन होकर
उसमे खो जाउंगी,
सागर में समाकर
सदा के लिए
मैं सागर की हो जाउंगी॥!!
--गोपाल के
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